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ग़ज़ल - आजतक कदर न की पैसे की

  आजतक कदर न की पैसे की | और कहता रहा-तेरी ऐसे की, तैसे की ||   दुनिया देख-देख के सर धुनती है | क्या करे समझ का मुझ जैसे की ||   बीन बजा-बजा के लोग हार गए | समझ में आए तब ना कुछ भैंसे की ||   दुनिया जलती है बहुत, मेहनत देखती है नहीं | पूछती फिरती है, ‘इतनी तरक्की कैसे की’ ?   मुस्कानें बांटीं, गम बटोरे और चलते रहे | जिन्दगी हमने अपनी गुजर-बसर ऐसे की ||

समंदर का गीत

समंदर आज भी वही गीत गाता है जो उसने पहली बार गाया था जब वो अस्तित्व में बस आया था | समंदर की रेत के हर कण और समंदर का हर जड़ -चेतन मिलेंगे तुम्हें उसी आदिम गीत में मगन | फिर इसमें अचरज क्यूँ हो कि समंदर जब भी लहरों के सुर में गाता है हर सुनने वाला गीतमुग्ध रह जाता है | २१-७-२०११