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जीवन का ये ही अफसाना

२६-११-२०११ जीवन का ये ही अफसाना | राग नया है, साज पुराना || जीवन की गति परिचित सी है, पथ सारे जाने-पहचाने, पंख मिले हैं हम सब को, पर भूल गए है पर फैलाना | जीवन का ये ही अफसाना | राग नया है, साज पुराना || रिश्तों के सोते सूखे हैं, घर-अपने पीछे छूटे हैं , पैसे की दीमक ने शुरू किया है, घर की दीवारों को खाना | जीवन का ये ही अफसाना | राग नया है, साज पुराना || माँ –बाबूजी अब गाँवों में, बेटे शहरों के बाशिंदे; मोबाइल पर ही अब तो चलता है रिश्तों का निभाना | जीवन का ये ही अफसाना | राग नया है, साज पुराना || पिज्जा से अब भूख मिटे है और पेप्सी से प्यास, शायद बच्चे भूल ना जाये कैसा होता माँ का खाना | जीवन का ये ही अफसाना | राग नया है, साज पुराना || फेसबुकी इस दुनिया में अब मिलना भी आभासी है, जीने को मुल्तवी करते, करके ‘फुर्सत नहीं है’ का बहाना | जीवन का ये ही अफसाना | राग नया है, साज पुराना ||

इटली आया नहीं, फ्रांस गया नहीं-केबीसी के पंच कोटि विजेता सुशील कुमार की स्वर्णिम सफलता

इटली आया नहीं, फ्रांस गया नहीं-केबीसी के पंच कोटि विजेता सुशील कुमार बिहार के मोतिहारी के रहनेवाले सुशील कुमार ने एक मिसाल पेश की है भारत के संघर्षरत युवाओं के सामने. महात्मा गाँधी की कर्मभूमि चम्पारण से सम्बन्ध रखनेवाले और महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में कम्प्युटर ऑपरेटर की नौकरी करनेवाले यह युवक भारत के युवाओं के लिए एक प्रेरणा बनकर उभरा है. हालाँकि कहनेवाले यह कह सकते हैं कि यह सफलता लौटरी में मिली सफलताओं जैसी ही है और ऐसे मौके हर किसी को नहीं मिलते. मगर, इस शख्श ने इस सफलता के लिए ११ सालों तक इंतजार किया है और इस मंच तक पहुचने के लिए हर संभव प्रयास उसने किये. अपने परिवार को सहारा देने के लिए स्कूली बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने तक का काम किया. इसलिए उनकी इस सफलता को उनके संघर्ष के आईने में देखते हुए उसे समुचित सम्मान दिए जाने की जरुरत है. सुशील ने जिस हिसाब से इस खेल को खेला और जितने रिस्क लिए, वो भी काबिल-ए-तारीफ है. १ करोड़ के प्रश्न तक वो बस एक लाइफ लाइन प्रयोग कर पहुचे. उन्होंने अच्छे रिस्क भी लिए और किस्मत भी उनपर मेहरबान रही. कई बार उन्होंने अपने इन्ट्य

जाना जगजीत का

जगजीत के जाने से गज़लों की दुनिया में जो सूनापन छाया है, उसके लिए यही कह सकते हैं कि जिंदगी की धूप से राहत देनेवाला गज़लों का सबसे घना सायादार वृक्ष आज नही रहा. जगजीत आज जहां चले गए हैं, वहां से चिट्ठी या सन्देश तो नही आने वाला पर उनकी गज़लों के सुर अब भी हम तक पहुचते रहेंगे. जगजीत के होठों ने जिन गज़लों को छुआ, उन्हें अमर कर डाला. उनकी गज़लों ने ना जाने कितने लोगों को प्यार का पहला खत लिखना सिखाया तो कितने लोगों को उनके बचपन की कागज की कश्ती और बारिश के पानी की याद दिला दी. उनकी गज़लों ने लोगों को हंसाते-रुलाते जिंदगी के हर रंग से रूबरू करवाया. उनके जाने पर तो बस इतना ही कह सकते हैं- "तुम ये कैसे जुदा हो गए हर तरफ हर जगह हो गए."

समंदर का गीत

समंदर आज भी वही गीत गाता है जो उसने पहली बार गाया था जब वो अस्तित्व में बस आया था | समंदर की रेत के हर कण और समंदर का हर जड़ -चेतन मिलेंगे तुम्हें उसी आदिम गीत में मगन | फिर इसमें अचरज क्यूँ हो कि समंदर जब भी लहरों के सुर में गाता है हर सुनने वाला गीतमुग्ध रह जाता है | २१-७-२०११

जिंदगी से क्या गिला

जिंदगी से क्या गिला | जो मिला है, सो मिला || दुःख से मुरझाया था मन | आज देखो फिर खिला || राजे-महराजे गए | खंडहर बचा है अब किला || उतरा नशा अब जिंदगी का | आके तू, जरा सा पिला || मुर्दों से फिरते हैं लोग यहाँ | कुछ भी कर, तू उन्हें जिला || मैं छोड़ आऊंगा सारा जहां | तू होगी, ये दिलासा तो दिला || प्यार-रिश्तों का जहाँ | पल भर में गया है ज्यूँ बिला || तेरी आँख में आंसू नही | तेरा ह्रदय है या है शिला || ताश के पत्तों की ढेरी है दुनिया ये | तू जरा सा इसको दे हिला || गम ना कर कीचड़ का तू | बस, कुछ कमल तू दे खिला || (१९-०८-२०१०)

तीन त्रिवेणियाँ- दूसरी कड़ी

१. ख्वाब इक खोया हुआ फुटपाथ पर ख्वाब इक खोया हुआ फुटपाथ पर | सर्द से कांपा किया था रात भर || आँख को क्या, चैन से सोई रही | ०७-५-२०११ २. मौत को जब करीब से देखा झूठे ख्वाबों से हुई रुसवाई, जिंदगी इक भरम नजर आई | मौत को जब करीब से देखा | ०१-५-२०११ ३. फुर्सत नहीं है वक्त दौड़ता जाता, जिंदगी थमी सी है| आजकल हर किसी को वक्त की कमी सी है || जिससे मिलता हूँ, यही कहता है-फुर्सत नहीं है | १६-७-२०११

तीन त्रिवेणियाँ

१ तेरी नजरों की छुअन तुम जिन निगाहों से देखती हो मुझे यूँ तो मैं लोहा हूँ मगर, सोना बना देती है मुझे,तेरी नजरों की छुअन. २२-५-२०१० २. इश्क में सीखा है हमने इश्क में सीखा है हमने फैलना आकाश-सा सूखी जमीं पे फैलती जाती सी नन्ही घास-सा. जो समेत डाले खुद में, उस प्यार से दूरी भली. ९-७-२०१० ३. मजबूरियां हौसलों को हार, ना स्वीकार है रौशनी को अंधेरों से कब प्यार है मगर, सबके साथ हैं कुछ मजबूरियां चस्पां. २९-३-२०११

रिश्ते

रिश्तों की डोर, कहाँ उलझी, कहाँ टूट गयी? ना की परवा इसकी, तो जिंदगी हमसे रूठ गयी || रिश्तों के टूटे हुए धागों से घिरे बैठे हम | सोचते हैं कि क्या इनकी मजबूती को लूट गयी || रिश्तों के जिस घर में सिर्फ दीवारें, दरवाजें नहीं | जिंदगी ऐसे घर में अपनी झूठ-मूठ गयी || रिश्ते शतरंज की बिसात पर खड़े आमने-सामने | शह और मात के फेर में प्यार की बाजी छूट गयी || रिश्ते दिल से निभाना भूली दुनिया, दोष किसे दें ? ऐसे रिश्तों की गर्मी, हमें बर्फ-सी महसूस गयी ||

बादलों के घेरे में

कृ ष्णा सोबती जी मेरी सबसे प्रिय लेखिकाओं में एक हैं और उनके सारे रचना संसार में “बादलों के घेरे” मेरी सबसे प्रिय कहानी है. इस कहानी में प्यार की जो करुण कथा है, वो पाठकों के मन में मानों धुंध भरी उदासी बन कर बस जाती है. इस कहानी को पढते हुए मन में जो भावनाएँ उमड़ी थी, उन्हें इससे पहले भी इक बार कविता में ढाला था पर वो कहीं गुम गई है. फिर से इस कहानी को हाल में पढते हुए इसे गीत में ढलने की कोशिश की है. यह रचना कृष्णा सोबती जी और उनके लेखन को समर्पित है. प्रयास कैसा रहा, इसे जानने की उत्कंठा रहेगी.. बादलों के घेरे में दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में | रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में || घिर रही यादों की घटा मन की पहाड़ी घाटियों में, और रह-रह कर हैं आंसू छलके पड़ते चेहरे पर, यादों की है रील फिरती मन के पटल पर बार-बार, तुम-ही-तुम बस याद आते, ओ मेरे पहले प्यार | दिख गया चेहरा तेरा फिर बादलों के घेरे में | रौशनी चमकी, हुई गुम, फिर से इन्हीं अंधेरों में || दरस पा कर के तुम्हारा, चाहना जागी थी मन में, इक सुमधुर हृदय थी, थी मगर अभिशप्त तन में; एक डोर खींचती

ख्वाब इक खोया हुआ फुटपाथ पर

ख्वाब इक खोया हुआ फुटपाथ पर | सर्द से कांपा किया था रात भर || आँख को क्या, महलों में सोई रही | ख्वाब तड़पा, आँख को, रात भर || आँख भर आयी बेचारे ख्वाब की | मिल गई इस सच से जो उसकी नजर || ख्वाब जाड़ें में ठिठुर कर भी ना मरा | गर्मियों में, छाँव ढूंढ छुपाया सर || आंसुओं से भी भीगा ना था, इतना वो | बारिशों में ख्वाब भीगा इस कदर || ख्वाब अब फुटपाथों का बाशिंदा है | देख महलों को फेर लेता है नजर || ख्वाब का ये हाल सब कोई देखते हैं | और चल देते हैं आँखों में आंसू भर || ख्वाब अब भी है भटकता रात- दिन | ढूंढता अपने लिए आँखों का घर || ख्वाब से आँख की दूरी अब है बहुत | नींद आँखों में आती नहीं रात भर || ०७/०५/११

अँधेरे में इक दिया जलाता हूँ

अँधेरे में इक दिया जलाता हूँ | मैं रौशनी के लिए खुद को मिटाता हूँ || जहां सारी उम्मीदें हताश हो आयी | वहां मैं, दुआ बन के काम आता हूँ || ग़मों से मुरझाई हुई इस दुनिया में | खुशी की कोई खबर लाता हूँ || सूख पतझड़ से गया हो जो चमन | वहां मैं बन के बहार छाता हूँ || चंद आँखों में नींद क्या सपने न बचे | वक्त बदलेगा, उन्हें ढाढस दिलाता हूँ || रोज फुटपाथ पर गुमशुदा ख्वाब मिलते हैं | मैं खोये ख्वाबों को आँखों से मिलाता हूँ || बच्चों-जैसे चाँद मांग बैठती है ये दुनिया | इसे मैं रंग-बिरंगे भुलावों से बहलाता हूँ || Saturday, May 07, 2011

एक चिड़िया को फिर से मिला आशियाना

एक चिड़िया को फिर से मिला आशियाना | एक चिड़िया जो टूट कर भी टूटी न थी चिड़ा छोड़ चला उसे, फिर भी आस टूटी ना थी जग से रूठ कर भी खुद से वो अभी रूठी ना थी उसके सपनों ने फिर से सीखा चहचहाना | एक चिड़िया को फिर से मिला आशियाना | नन्ही चिड़िया ने सहे कितने जुल्मो-सितम जीती रही खूंखार दुनिया में वो सहम-सहम और उसपे, कि दुनिया ने नहीं किया कोई रहम चिडियाँ जीती रही भूल कर के पंख फैलाना | एक चिड़िया को फिर से मिला आशियाना चिडियाँ जीती रही बरगद की कोटर तले साँझ ढलती रही, आस का दीपक नही ढले उसे अब भी था यकीं चिड़ा आएगा मगर दुनिया ने छीना उससे उम्मीदों का ताना-बाना | एक चिड़िया को फिर से मिला आशियाना | कितना रोई चिड़ी जब हुआ, उसका चिड़ा पराया रोती रही वो पर, आँखों से आंसू तक ना आया चिड़िया बुत बनी, वो बन गयी अपनी ही छाया दुनिया के कायदों ने छीना उसका मुस्कुराना | एक चिड़िया को फिर से मिला आशियाना चिड़िया घुटती रही, खुद में सिमटती रही अपने पंखों को फ़ैलाने से बचती रही थोड़ी-थोड़ी जिंदादिली उसकी रोज मरती रही बरगद रो देता था सुन के उसका दर्द भरा गाना | एक चिड़िया को फिर से मिल

शासन से अपना गिला भी क्या

शासन से अपना गिला भी क्या ? व्यवस्था से हमें मिला भी क्या ? भूख हमेशा आयी हमारे ही हिस्से , बदहाली का ऐसा सिलसिला भी क्या ? भूख से एक बच्चे ने दम तोड़ दिया , सुनके फाइल तो दूर, पत्ता तक हिला भी क्या ? कितने बगीचों को तुमने तबाह किया , मगर एक फूल तुमसे आजतक खिला भी क्या? तुमको वोट दिया, तुमने चोट दी बदले में | ये बताओ, बेमुरव्वती का ऐसा सिला भी क्या? बेबसों की आह को कैद करके रख सके, कहो मियां, है ऐसा कोई किला भी क्या? एक जिन्दा है, एक है पत्थर मगर, ठोकरें नियति है, नारी क्या शिला भी क्या? मुद्दतें हो गयी हैं हमको तौबा किये, आज दिल है, साकी सोच मत, पिला भी क्या.

ईमान मर नहीं सकता

भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे जी के वर्तमान संघर्ष और उसमें लोगों की सहभागिता देख बड़ा ही सुकून भरा अनुभव हुआ. वास्तव में, हमारे देश में बेलगाम होते हुए भ्रष्टाचार को अगर नहीं रोका गया, तो फिर इस महान देश की महानता अतीत की याद भर बन कर रह जायेगी. आज से ७ साल पहले बिहार मे स्वर्णिम चतुर्भुज योजना मे हो रहे व्यापक भ्रष्टाचार को उजागर करनेवाले ईमानदार इंजिनियर श्री सत्यदेव दुबे को उनकी ईमानदारी की कीमत अपनी जान से चुकानी पड़ी थी. उस प्रसंग मे एक कविता लिखी थी – ‘ईमान मर नहीं सकता’. यह कविता सत्येन्द्र डूबे तथा ईमान की हर उस आवाज को समर्पित है जिसने टूट जाना मंजूर किया पर बेईमानी के आगे झुकना नहीं. उस कविता को एक बार फिर आप लोगों के समक्ष पेश कर रहा हूँ. ईमान मर नहीं सकता आज के इस भयानक दौर में, जहाँ ईमान की हर जुबान पर खामोशी का ताला जडा है और चाभी एक दुनाली में भरी सामने धरी है ; फ़िर भी मैं कायर न बनूँगा, अपनी आत्मा की निगाह में. फ़िर भी मैं, रत्ती भर न हिचकूंगा चलने में ईमान की इस राह पे। मैं अपनी जुबान खोलूँगा मैं भेद सारे खोलूँगा- (बेईमानों- भ्रष्टाचारियों की काली क

खुद से जो हूँ आजकल मैं भागता-सा फिर रहा

खुद से जो हूँ आजकल मैं भागता-सा फिर रहा | है क्या वजह, क्या दे रहा हूँ खुद को मैं कोई सजा || शुतुरमुर्गी चाल है क्या खूब मैंने सीख ली | देख कर उलझनों को सर रेत में छुपा लिया || मुकद्दर और रेत की ये खूबी क्या ही खूब है | खुली मुट्ठी में टिकी, जो जकड़े उसने खो दिया || आँखें दुनिया से बंद कर मैं खुद में ही सिमटा रहा | औरों को परवा नहीं, पर, मैं ना ऐसे में मैं रहा || खुद से खुद को ये नसीहत देना अब है लाजमी | पीठ है अब तक दिखाई, अब दिखा, सीना तना |

सर पे माँ की दुआओं का छाता रहा

जिंदगी उलझती रही, मैं उसे सुलझाता रहा | खुदा ने इश्क की दौलत थी बख्शी, लुटाता रहा || रोटी, कपडा, सर पे छत, नाकाफी थे इंसान को | होश सँभालने से मरने तक वो बस, दौलत जुटाता रहा || खुशी के मोती छोड़, दौलत के कंकड़ चुनता रहा इंसान | खुदा ऊपर से ये नादानी देख मुस्कुराता रहा || सफर में रहे हमसफ़र बन के सुख ओर दुःख | एक आता रहा, एक जाता रहा || बददुआओं की तेजाबी बारिशें, कई बार बरसी | शुक्र है, सर पे माँ की दुआओं का छाता रहा ||

धर्म के नाम पर अनगिन हैं मरे लोग

साथियों, इधर हाल में धार्मिक हादसों में मरने वाले लोगों कि संख्या काफी बढ़ी है..धार्मिक उत्सवों में जुटी भारी भीड़ को आजकल ये पता नही होता कि कब किसको मोक्ष मिलने का नम्बर आ जाये. कभी मंदिर, कभी मस्जिद, कभी चर्च..उपरवाला भी हादसों की इस बढती तादात को देख चिंताकुल होगा, ऐसा मुझे लगता है. हाल में शबरीमला में मकरज्योति देखने को जुटी भीड़ ओर वहां भगदड़ में मरे सैकड़ों लोगों को देख एक गज़ल १५ जनवरी को लिखी थी..आज संयोग से मिली तो सोचा कि आप लोगों के सामने पेश कर दूँ. इस गज़ल में खुदा शब्द उपरवाले का प्रतीक है..उसे खुदा कहे, ईश्वर कहे या फिर God के नाम से पुकारे, इस गज़ल की फरयाद हर किसी से है खुदा के खौफ से हरदम हैं डरे लोग | धर्म के नाम पर अनगिन हैं मरे लोग || जिंदगी इंसान की, कितनी सस्ती हो गई | कीड़े-मकोडों की जानिब हैं मरे लोग || खुदा के राज में भी अब जरा बदहाली है | फिर भी खुदा से खैर की दुआ हैं करे लोग || बिना डुलाये हाथ-पाँव, खुदा कुछ नहीं देता | फिर भी खुदा से भीख मांगते हैं फिरे लोग || खुदा भी दिन में दिया लेके ढूंढता है फिरे | कितने दुर्लभ हैं हो गए, दुनिया में खरे लोग ||

जिंदगी भूलभुलैया तो है जरुर मगर

बाहर की गर्मी गिला देती है | भीतर की गर्मी जिला देती है || इश्क के जाम की, मुझको नहीं तमन्ना है| साकी अनजान है, आकर के पिला देती है|| जब कभी दिल की कली मुरझाती है| प्रेम की बारिश, उसे फिरसे खिला देती है|| मैं तो करता हूँ उससे इश्क बेइंतहा| फिर वो क्यूँ बेमुरव्वती का सिला देती है || जब कभी जिंदगी मुरझाती है | उसकी मुस्कान जिला देती है || गैरों की सैकड़ों ठोकरों की परवा नहीं | अपनों की एक ठोकर भी हिला देती है || जिंदगी भूलभुलैया तो है जरुर मगर | भूले-बिछुड़ों को किसी मोड़ मिला देती है || (१३ अप्रैल २००४ को लिखित )

जरा पतझड़ में डरा होता हूँ

सूख जाता हूँ, हरा होता हूँ ! जरा पतझड़ में डरा होता हूँ !! जब तलक कोपलें नयी नहीं आ जाती हैं ! तन से जिन्दा, मगर, मन से मरा होता हूँ !! दौड़ती-नाचती फिरती हुई दुनिया के बीच ! मैं अपनी जगह पर ही ठहरा होता हूँ !! बीते कल में चिड़ियों की चीं-चीं सुख देती थी ! आजकल मोटरों की पीं-पीं से बहरा होता हूँ !! दाना चुगने को जाती है चिड़िया तो दुआ करता हूँ ! और फिर उसके लौटने तक, बैचैन मैं जरा होता हूँ !! चिलचिलाती धूप में मेरी छाँव सुकून देती है ! मैं झुलसाती धूप में हरियाली का आसरा होता हूँ !! एक दिन मुझे भी ले डूबेगा लोभ इन्सां का! पेड़ों पे कुल्हाड़ियाँ चलती देख, मैं अधमरा होता हूँ!! किसी को छाँव, घर किसी को, किसी को लकड़ी ! खुश हूँ कि, मैं कितनों का सहारा होता हूँ !! जड़ें तलाशती फिरती हैं पानी पथरायी मिट्टी में ! धरती के सीने से चिपक, मैं और गहरा होता हूँ !! लाख पतझड़ करे कोशिश मुझे सुखाने की ! बसंत आते ही मैं, मुसकरा के हरा होता हूँ !!

अब तलक इश्क पे उम्मीद मेरी कायम है

हुस्न हरदम मिला पराया है मगर ! इश्क का अपने सर पे साया है मगर !! तुम नही आते हो ख्वाबों तक में ! आंसू तेरी याद में आया है मगर !! अब तलक इश्क पे उम्मीद मेरी कायम है ! इश्क की राह में धोखा बहुत खाया है मगर !! इश्क की खातिर उठाया दुनिया का हर सलीब ! इश्क में खुद टूटे, इश्क को टूटने से बचाया है मगर !! लो, आखिर इश्क की मंजिल पे आ ही पहुंचे हम ! इश्क की राहों में कदम कई बार लडखडाया है मगर !! यार को देख कर चेहरे पे खिल उठी मुस्कान ! इस ख़ुशी की खातिर दिल दर्द से नहाया है मगर !!

नशा शराब का ज्यादा है या कि साकी का

नशा शराब का ज्यादा है या कि साकी का ! छुपी कशिश का असर ज्यादा या बेबाकी का !! बहुत सी ठोकरें खायी, मगर अभी तक भी ! दिल-ए-नादाँ ने सीखा सबक ना चालाकी का !! पूस की रात कितनी आयी-गयी मगर हल्कू ! समझ ना पाया अब तक हिसाब बाकी का !! देवता और शैतान दोनों का ही ये पहनावा है ! समझ में आता नहीं कैरक्टर यारों खाकी का !! समय के साथ दिल की दुनिया बदल गयी कितनी ! गया बचपन के साथ शौक ताजिये की झांकी का !! अपनी ऐय्याशियों के बीच जरा देखो इधर ! कितने लोगों के लिए जिन्दगी मायने है फाकी का !!

तू मेरा आईना है, मैं तेरी परछाईं हूँ

तू मेरा आईना है, मैं तेरी परछाईं हूँ / तू कभी मुझमें, कभी तुझमें मैं समाई हूँ // तू मेरे दिल के कितने पास-पास रहता है / तुझसे ये पूछने बड़ी दूर से मैं आई हूँ // न छोड़ने कि कसमें खा के जिसको पकड़ा था / वही मैं यार कि छूटी हुई कलाई हूँ // उसे खबर न हुई जिसके लिए फफ़क के बही / यारों, मैं इस जहाँ कि सबसे बेबस रुलाई हूँ // खुशियों के लिबास से आंसूओं के तन,दर्द के बदन को ढके / मैं किसी गुमनाम शायर की सबसे करुण रुबाई हूँ //