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कहते हैं कहनेवाले कि स्वराज चल रहा.

किस हाल में हमारा ये समाज चल रहा? 'सब चलता है' के नारे से हर काज चल रहा. बीते हैं छः दशक, अब भी भूख है, गरीबी है, सब जानते हैं , फिर भी है ये राज चल रहा. हिंसा की आग में जनता फतिंगों की तरह भुन रही इस मुल्क का हाल-ओ-करम नासाज चल रहा. आकाश की अगाधता को देख कर भी बिना डरे दूजा किनारा छूने को, परिंदे का परवाज चल रहा. आतंक का किसी मजहब से न लेना न कोई देना फूटे थे कल बम मस्जिद में, जब नमाज चल रहा. कहीं जुबां पे है ताले, कहीं पांवों में हैं छाले, पर कहते हैं कहनेवाले कि स्वराज चल रहा. जब मुस्कराना भूलने लगे सभी बच्चे समझो की खुदा दुनिया से नाराज चल रहा. ऐसे अनगिन कड़वे सच सीने में मेरे हैं दफ़न फिर फुर्सत से सुनाऊंगा, मैं आज चल रहा.

क्या कभी साहिर को भूली अमृता

जिन्दगी में आ गयी है रिक्तता मन में फैली कैसी है ये तिक्तता. प्रेम में इस कदर अँधा हो गया दुनिया से है हो गयी अनभिज्ञता. जी रहा हूँ अतीत में मैं इस कदर की देखता हूँ भविष्य, दिखती शून्यता. शिथिल तन में मन हुआ है बदहवास खुशमिजाजी में हुई है न्यूनता. एक दोराहे पे आ ठिठका खड़ा हूँ एक तरफ है प्रेम दूजे पूर्णता. जिन्दगी में आ गया इमरोज, फिर भी क्या कभी साहिर को भूली अमृता?

किसी सोये हुए को कस के झिंझोड़ा नहीं करते

यूँ बैचैन होके न आने वालों की बाट अगोरा नही करते रूठा बालम जो लौट आये तो यूँ मुंह मोड़ा नही करते. किसी भी हाल में ना मानने की जिद हो जिसकी वैसे इन्सान से कभी भी निहोरा नही करते. कोई प्यारा सा सपना बेरहमी से टूट जाता है किसी सोये हुए को कस के झिंझोड़ा नहीं करते. कि जिन बातों से अपनी शर्म के परदे उघरते हो वैसी बातों का शहर भर में ढिंढोरा नही करते. बदन और रूह जैसे जुड़ चुका हो जब कोई जोड़ा किन्हीं पंचायतों के कहने से उनका बिछोड़ा नही करते.

"एक शेर अपना, एक पराया" में दुष्यंत कुमार के शेरों का काफिला

इस पोस्ट में मैं हिंदी ग़ज़ल को एक नए मुकाम पर पहुचने वाले और आपातकाल की तानाशाही के खिलाफ जनता को झकझोरने वाले  शायर दुष्यंत कुमार के कुछ पसंदीदा शेर और उनकी तर्ज़ पर लिखे अपने शेर पेश करूँगा. पेशकश कैसी लगी. यह आपसे जानने की प्रतीक्षा रहेगी. १. मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ, पर कुछ कहता नही, बोलना भी है मना, सच बोलना तो दरकिनार. ---दुष्यंत कुमार---- घृणा से मुझे घूर कर पूछा वो पूछा ख्वाहिश आखिरी हँसते हुए उसकी तरफ देखा, कहा मैंने, 'सिर्फ प्यार'. ----केशवेन्द्र कुमार----       २. सिर्फ शायर देखता है कहकहों की असलियत हर किसी के पास तो ऐसी नजर होगी नहीं. ---दुष्यंत कुमार--- इश्क में सीखा है हमने फैलना आकाश-सा आशिक तो हैं हम भी तेरे, होंगे मगर जोगी नहीं. ---केशवेन्द्र कुमार----       ३. जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले मरे तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए ----दुष्यंत कुमार---- आँख में जम गया है अँधेरा परत-दर-परत और कितना इंतजार बाकी है सहर के लिए. ----केशवेन्द्र----       ४. ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा, मैं

एक शेर अपना-एक पराया-"गुलज़ार साहेब" के शेरों के साथ

साथियों, इस कड़ी में मैं गुलज़ार साहब के लिखे कुछ पसंदीदा शेरों को लेकर उनकी तर्ज़ पर अपने शेर कहने की कोशिश कर रहा हूँ. शेर गुलज़ार साहब के गीतों-नज्मों-गजलों के प्यारे से संग्रह "यार जुलाहे" से लिए गए हैं. १. हाथ छूटें भी तो रिश्ते नही तोड़ा करते वक़्त की शाख़ से लम्हे नही तोड़ा करते ----गुलज़ार---- कोई प्यारा सा सपना बेरहमी से टूट जाता है किसी सोए हुए को कस के नहीं झिंझोड़ा करते. -----केशवेन्द्र----       २. आप के बाद ये महसूस हुआ है हम को जीना मुश्किल नहीं और मरना भी दुश्वार नहीं ----गुलज़ार--- कहते रहे रोज तुम्हे तुमसे प्यार करते हैं और दिल जानता था हमको तुमसे प्यार नहीं ------केशवेन्द्र-----       ३. जिन्दगी यूँ हुई बसर तन्हा काफिला साथ चला और सफ़र तन्हा अपने साये से चौक जाते हैं उम्र गुजरी है इस कदर तन्हा ---गुलज़ार--- सड़कें NH बनी जब से, है मुंह फेर लिया किनारे गुमसुम खड़े हैं शज़र तन्हा छू के लौट आई है किनारों को लहर लौटी है देखो मगर किस कदर तन्हा. ----केशवेन्द्र---- ४..दर्द हल्का है साँस भारी है जिए जाने की