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कहते हैं कहनेवाले कि स्वराज चल रहा.

किस हाल में हमारा ये समाज चल रहा? 'सब चलता है' के नारे से हर काज चल रहा. बीते हैं छः दशक, अब भी भूख है, गरीबी है, सब जानते हैं , फिर भी है ये राज चल रहा. हिंसा की आग में जनता फतिंगों की तरह भुन रही इस मुल्क का हाल-ओ-करम नासाज चल रहा. आकाश की अगाधता को देख कर भी बिना डरे दूजा किनारा छूने को, परिंदे का परवाज चल रहा. आतंक का किसी मजहब से न लेना न कोई देना फूटे थे कल बम मस्जिद में, जब नमाज चल रहा. कहीं जुबां पे है ताले, कहीं पांवों में हैं छाले, पर कहते हैं कहनेवाले कि स्वराज चल रहा. जब मुस्कराना भूलने लगे सभी बच्चे समझो की खुदा दुनिया से नाराज चल रहा. ऐसे अनगिन कड़वे सच सीने में मेरे हैं दफ़न फिर फुर्सत से सुनाऊंगा, मैं आज चल रहा.

क्या कभी साहिर को भूली अमृता

जिन्दगी में आ गयी है रिक्तता मन में फैली कैसी है ये तिक्तता. प्रेम में इस कदर अँधा हो गया दुनिया से है हो गयी अनभिज्ञता. जी रहा हूँ अतीत में मैं इस कदर की देखता हूँ भविष्य, दिखती शून्यता. शिथिल तन में मन हुआ है बदहवास खुशमिजाजी में हुई है न्यूनता. एक दोराहे पे आ ठिठका खड़ा हूँ एक तरफ है प्रेम दूजे पूर्णता. जिन्दगी में आ गया इमरोज, फिर भी क्या कभी साहिर को भूली अमृता?

किसी सोये हुए को कस के झिंझोड़ा नहीं करते

यूँ बैचैन होके न आने वालों की बाट अगोरा नही करते रूठा बालम जो लौट आये तो यूँ मुंह मोड़ा नही करते. किसी भी हाल में ना मानने की जिद हो जिसकी वैसे इन्सान से कभी भी निहोरा नही करते. कोई प्यारा सा सपना बेरहमी से टूट जाता है किसी सोये हुए को कस के झिंझोड़ा नहीं करते. कि जिन बातों से अपनी शर्म के परदे उघरते हो वैसी बातों का शहर भर में ढिंढोरा नही करते. बदन और रूह जैसे जुड़ चुका हो जब कोई जोड़ा किन्हीं पंचायतों के कहने से उनका बिछोड़ा नही करते.

"एक शेर अपना, एक पराया" में दुष्यंत कुमार के शेरों का काफिला

इस पोस्ट में मैं हिंदी ग़ज़ल को एक नए मुकाम पर पहुचने वाले और आपातकाल की तानाशाही के खिलाफ जनता को झकझोरने वाले  शायर दुष्यंत कुमार के कुछ पसंदीदा शेर और उनकी तर्ज़ पर लिखे अपने शेर पेश करूँगा. पेशकश कैसी लगी. यह आपसे जानने की प्रतीक्षा रहेगी. १. मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ, पर कुछ कहता नही, बोलना भी है मना, सच बोलना तो दरकिनार. ---दुष्यंत कुमार---- घृणा से मुझे घूर कर पूछा वो पूछा ख्वाहिश आखिरी हँसते हुए उसकी तरफ देखा, कहा मैंने, 'सिर्फ प्यार'. ----केशवेन्द्र कुमार----       २. सिर्फ शायर देखता है कहकहों की असलियत हर किसी के पास तो ऐसी नजर होगी नहीं. ---दुष्यंत कुमार--- इश्क में सीखा है हमने फैलना आकाश-सा आशिक तो हैं हम भी तेरे, होंगे मगर जोगी नहीं. ---केशवेन्द्र कुमार----       ३. जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले मरे तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए ----दुष्यंत कुमार---- आँख में जम गया है अँधेरा परत-दर-परत और कितना इंतजार बाकी है सहर के लिए. ----केशवेन्द्र----       ४. ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा, मैं

एक शेर अपना-एक पराया-"गुलज़ार साहेब" के शेरों के साथ

साथियों, इस कड़ी में मैं गुलज़ार साहब के लिखे कुछ पसंदीदा शेरों को लेकर उनकी तर्ज़ पर अपने शेर कहने की कोशिश कर रहा हूँ. शेर गुलज़ार साहब के गीतों-नज्मों-गजलों के प्यारे से संग्रह "यार जुलाहे" से लिए गए हैं. १. हाथ छूटें भी तो रिश्ते नही तोड़ा करते वक़्त की शाख़ से लम्हे नही तोड़ा करते ----गुलज़ार---- कोई प्यारा सा सपना बेरहमी से टूट जाता है किसी सोए हुए को कस के नहीं झिंझोड़ा करते. -----केशवेन्द्र----       २. आप के बाद ये महसूस हुआ है हम को जीना मुश्किल नहीं और मरना भी दुश्वार नहीं ----गुलज़ार--- कहते रहे रोज तुम्हे तुमसे प्यार करते हैं और दिल जानता था हमको तुमसे प्यार नहीं ------केशवेन्द्र-----       ३. जिन्दगी यूँ हुई बसर तन्हा काफिला साथ चला और सफ़र तन्हा अपने साये से चौक जाते हैं उम्र गुजरी है इस कदर तन्हा ---गुलज़ार--- सड़कें NH बनी जब से, है मुंह फेर लिया किनारे गुमसुम खड़े हैं शज़र तन्हा छू के लौट आई है किनारों को लहर लौटी है देखो मगर किस कदर तन्हा. ----केशवेन्द्र---- ४..दर्द हल्का है साँस भारी है जिए जाने की

आम की ख्वाहिश लिए बबूल बोता आदमी

कपड़ों के हिसाब से फिट होता आदमी खुद की अर्थी, खुद के कांधे ढ़ोता आदमी. मरियल रिक्शेवाले का कचूमर निकालते गालियाँ बकता जा रहा था मोटा आदमी. जितने खरे आदमियों के उठाये हैं मुखौटे हंस के अन्दर से निकला है खोटा आदमी. देखो जिधर भी, मिल जायेगा  तुम्हें उधर आम की ख्वाहिश लिए बबूल बोता आदमी. हर आँख से हर आंसू पोछे कैसे कोई भला जिधर देखो उधर मिलेगा कोई रोता आदमी . चेहरे के जंगल में भावनाएं लुप्तप्राय हैं रोबोटों सा दिखने लगा है मशीन होता आदमी. इतनी अँधेरी रात में भी कोई दिया जल रहा नींद में मुस्कराया है सपने संजोता आदमी .

समानुभूति

ओ वाचाल वाणी ! एक दिन के लिए मूक हो कर देख, शायद तुझे समझ आ सके दर्द उनका जिनकी जुबां नही है या जो जुबां होते हुए भी बे-जुबां है. ओ चंचल नयन ! एक दिन पलकों के फाटक बंद करके देख, शायद तू समझ पाए ज्योतिविहीन जीवनों की व्यथा और 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' का अर्थ. ओ बावरे श्रवण ! एक दिन के लिए कर्ण-पटलों को बंद कर के देख, शायद तू अनुभव कर सके उनकी व्यथा जो सुन नही सकते एक शब्द भी प्यार भरा. सहानुभूति नही समानुभूति उपजाओ. वंचितों के जीवन की वंचना मिटाओ. फूल बन के खुशियों की खुशबू लुटाओ कर सको यदि ये तो सार्थक होगा जीना तुम्हारा.

जब कबीर सा कोई फक्कड़ लिखे ग़ज़ल

बहुत दिनों से लिख नहीं पाया कोई भी ग़ज़ल तन्हाई में लिख ना डालूं कोई रोई-सी ग़ज़ल दुनिया की तेज धूप में कुम्हलाये अहसासों के पौधे आह! कितनी मेहनत से मैंने बोई थी ग़ज़ल जब कबीर सा कोई फक्कड़ लिखे ग़ज़ल दिल की भूख मिटाती है वो लोई-सी ग़ज़ल दुनिया की गंदगी ने हर बार दिक दिया चाहा तो था लिखना गंगाज़ल से धोई-सी ग़ज़ल चाहा था ऐसी ग़ज़लें हों, झकझोर डाले दुनिया को अफ़सोस की अब तक लिखी सब सोई-सी ग़ज़ल

मंजिल मिलती है तो सफ़र खोता है

ऐसा ही दस्तूरे जमाना होता है मंजिल मिलती है तो सफ़र खोता है. एक और एटम  बम पर हो खर्च करोड़ों और दूसरी और भूख से शिशु रोता है. नेताओं में अद्भुत भाईचारा होता है एक लगाता कालिख है, दूजा धोता है. हाथ लगेगी सिर्फ  हताशा ,मिलेंगे ग़म कोरे सपनों की फसलें जो बोता है. संतुष्टि के मोती हासिल होते हैं उनको ही खतरों के सागर  में लगाते जो गोता हैं. नेताओं-अफसरों आओ फसल काट लो मर-मर के खेतों को मैंने जोता है. आँखें बरसी, पानी की जब बूँद ना बरसी, टूट पड़ा ,खेतों को जिसने मर-मर कर जोता है. जीवन के हर दर्शन को रट कर के भी जीवन को जो ना समझे वो तोता है.

तुम्हे देख के ऐसा लगता है

तुम्हे देख के ऐसा लगता है इक आंसू की बूँद जो छलकी नही नयनों तक आई प लुढकी नही जीती भी रही मरती भी रही फिर आँखों-ही-आँखों में सूख चली. तुम्हे देख के ऐसा लगता है गंगा के जैसी दिखती हो तुम पावन सबको करती आई पर तुमको सबने मैला किया तुम रह गयी अपनी परछाईं. तुम्हे देख के ऐसा लगता है जैसे  राधा खड़ी हो यमुना तट रोती भी नही, हंसती भी नही सुध-बुध बिसरा कर तन-मन की निर्मोही की बाट अगोरे है. तुम्हे देख के ऐसा लगता है जैसे बादल का इक छोटा टुकड़ा आकाश के कोने में तन्हा छुप-छुप के रोया करता है हर ग़म को छुपाये फिरता है. तुम्हे देख के ऐसा लगता है जैसे कोई बिन माँ का बच्चा हँसना भी भूला, रोना भी उसे भूख-प्यास का भी पता नही आकाश निहारा करता है. तुम्हे देख के ऐसा लगता है जैसे कोई कली मुरझाई-सी खिलने से पहले लील गई जिसको इस जग़ की निठुराई कोमलता का करुणांत हुआ. तुम्हे देख के ऐसा लगता है जैसे इक अभिमन्यु हो रण में आशा सारी नैराश्य भरी फिर भी रथ-चक्र उठाता है लड़ता जाता अंतिम पल तक

तुममे देखा, हम ही हम है

हंसी ओंठ पर आँखें नम है! हंसकर रोने का मौसम है!! सारी यादों को पछाड़ कर! सबसे ऊपर तेरा ग़म है!! खुदा सुखी है इस दुनिया से! दुखी बचे तो केवल हम है!! ताल ठोककर खड़े है हम भी! देखे दुनिया में कितना दम है!! इश्क के पागलपन का ये आलम! तुममे देखा, हम ही हम है!!

हंसी होंठ पर आँखें नम है

कैफ़ी आज़मी का एक मार्मिक शेर याद आ रहा है- "आज सोचा तो आंसू भर आये   मुद्दतों   हो गयी मुस्कराएँ." सचमुच, जीवन की आपाधापी ने आदमी के होंठों से हंसी छीन ली है. हंसी- जो जिन्दगी की सबसे मूल्यवान नेमत है, आज दुर्लभतम हो गयी है. स्वच्छ धवल मुस्कान, कहकहे, मुक्त अट्टहास  शायद ही कहीं दिखते हैं. बड़ों की दुनिया इतनी क्रूर, इतनी जालिम, इतनी बेरहम हो गयी है कि प्रकृति ने उससे हंसी छीन ली है.  हंसी  बची है अगर कहीं  तो मासूम बच्चों के पास बची है. बड़ों कि दुनिया में तो हंसी भी बाजार का उत्पाद बन गयी है. मुस्कराने के लिए भी अब विशेष ब्रांड के टूथपेस्ट , ब्रश  , क्रीम  और मोउथ  -फ्रेशनरों कि जरुरत है. हंसी हास्य  क्लबों के यहाँ मानों गिरवी रख दी गयी है. आधुनिक युग का मानव हँसे भी तो कैसे हँसे ? आज की इस तेज रफ़्तार दुनिया में उसके पास जीने की  भी फुर्सत नही रह  गयी है शायद! आदमी आदमी ना रहकर मशीन होता जा रहा है, संवेदन शून्य रोबोट  होता जा रहा है.  हंस सकता है वो जो अपनी शर्तों पर एक भरी-पूरी जिन्दगी जीता हो, जो औरों  के दुःख-दर्द मिटाने का प्रयास करता हो, जो जिन्दादिली से जिन्दगी क

त्रिवेणी--3

साथियों, त्रिवेणी की तीसरी कड़ी आप लोगों की सेवा में हाजिर है. आशा है की आप सबों को पसंद आएगी. @प्रेम में टूट कर भी प्रेम में टूट कर भी प्रेम को टूटने नहीं देते. टूट कर प्रेम किया करने वाले.       @विज्ञापन की दुनिया में मम्मी की कहना मत सुनना करना वही जो कहे टमी विज्ञापन की दुनिया में रिश्ते सारे बने डमी.       @एक त्रिवेणी के दो चेहरे 1. उसके चेहरे की उदासी मेरी आँखों ने पढ़ी और मेरे चेहरे की उदासी भांप ली उसने, और उस बच्ची के साथ मैं भी हंस पड़ा हौले-से. 2. उसके चेहरे की उदासी मेरी आँखों ने पढ़ी और मेरे चेहरे की उदासी भांप ली उसने, हँस के अपनी उदासियाँ साझा कर ली हमने.       @आँखें खुली हों तुम जो कहते हो मेरे हमसफ़र बनोगे तुम तुमको क्या खबर कि किस राह मैं चलूँगा? चाहत पे भरोसा करो पर आँखें खुली हों.   @ मेरी मज़बूरी भी, मजबूती भी तुम्हारी पीड़ा से छलकी रहती है आँखें मेरी दिल भरा सा रहता है, होंठों पे दुआ होती है क्या कहूं, तुम मेरी मज़बूरी भी हो, मजबूती भी.       @ जिन्दगी से जी अभी भरा नही रातें कितनी गुजारी जाग

ऐसी भी क्या कमी दिखी, मौला इस दीवाने में

एक ही चर्चा छेड़ा करते हैं अपने हर गाने में ! दर्द मिला मुझे ज्यादा तेरे आने में या जाने में !! एक ही तेरा ग़म था जिसको कहते रहे अफ़सानों में! इक अपना जो बिछड़ा उसको ढूंढा हर बेगाने में !! ग़म-ही-ग़म पाकर अब रब से पूछा करते हरदम हम! ऐसी भी क्या कमी दिखी, मौला इस दीवाने में !! चैन से हम मर भी ना पाए, ओ संगदिल, तू ये तो बता! काहे इतनी देर लगा दी, जालिम तूने आने में!! खुद को पाना हो या खुदा को, इश्क की आग में जलके देख! शमा के इश्क़ में जलते-जलते यही कहा परवाने ने!! दिल की रस्साकस्सी में ना मालूम था ऐसा होगा! दिल की रस्सी ही टूट गयी इक-दूजे को आजमाने में!! तुमको खोने की चिंता में जीते जी कई बार मरा! पर खो डाला तुझको मैंने शायद तुझको पाने में!!

दिल फिर से उम्मीदों की फसल बो गया है

साथियों, आपकी खिदमत में पेश है मेरी शुरुआती गजलों में एक ग़ज़ल. वर्ष 2004  में जब मैंने ग़ज़ल विधा पार हाथ आजमाने की शुरुआत की थी, तो उस समय की लिखी हुई ये छठे नंबर की ग़ज़ल है. ग़ज़ल में मामूली सा संसोधन किया है और कुछ नए शेर आज की रात में जोड़े हैं. शेर संख्या 3-8  नए हैं, आज के लिखे हुए हैं. बाकी शेर पुराने हैं और मार्च 2004 के लिखे हुए हैं. आपसे मिला हूँ कुछ इस कदर , जिन्दगी का चैन खो गया है सब कुछ तो है चैन से, बस दिल जरा बैचैन हो गया है. (१) वो जो फूल है गुलाब का, काँटों के संग खुश था और झरते-झरते विरह में दो बूँद आंसू रो गया है. (२) माँ के हाथ नींद में भी झूले को हैं झुला रहे   लोरी सुनते-सुनते बच्चा सो गया है . (3) अब गिले-शिकवा मिटा के, उसको लगा लो गले जो आंसुओं  से दिल के दाग-धब्बे  धो गया है. (4) कचरे से कुछ बीन कर खाते हुए भिखारी ने कहा भला  हो ऊपरवाले  का कि पेट में कुछ तो गया है. (5) लौट कर वो आ ना सका, राहे सारी बंद थी लक्ष्मण रेखा पार कर के जो गया है.   (6) जाने वालों को यूँ तड़प कर पुकारा नही करते जाने दो उसे, जो गया है वो गया है.   (7) दुनियावाल

मुझे अच्छे लगते हैं

दोस्तों, दिसंबर 2005 में लिखी हुई पर अपने दिल के काफी करीब की इस कविता को आप लोगों के सामने रख रहा हूँ. उस वक़्त जो चीजें मुझे अच्छी लगती थी, आज भी उनमे कोई बदलाव नही आया है. मुझे अच्छे लगते हैं मुझे अच्छा लगता है कलकल करता झरना मुझे अच्छी लगती है चहचहाती हुई चिड़ियाँ मुझे अच्छी लगती है खिलखिलाती हुई लडकियाँ. मुझे अच्छी लगती है उगते हुए सूरज की लालिमा मुझे अच्छी लगती है युवा सूर्य की प्रखर उर्जा मुझे अच्छा लगता है ढलते सूरज का अपराजेय भाव मुझे अच्छे लगते है छोटे- छोटे बच्चे मुझे अच्छी लगती है उनकी चंचलता उनकी तोतली बोली, उनकी अबूझ भाषा सबसे बढ़कर अच्छी लगती है- उनके नयनों में चमकता विश्वास और उनके मन में दमकती आशा. मुझे अच्छे लगते हैं खिले हुए फूल सौंदर्य का खजाना लुटते निःस्वार्थ भीनी-भीनी सुगंध से सुरभित करते दिग-दिगंत जन-जीवन मुझे अच्छी लगती है ईमानदारी मुझे अच्छी लगती है आशा सबसे अच्छी लगती है मुझे प्रेमी-स्नेही जनों के नयनों की मूक भाषा. मुझे हर वो चीज अच्छी लगती है जो इस सुंदर दुनिया को बनाती है और सुंदर और प्यारी और अच

जिन्दगी से जी अभी तक भरा नही

जिन्दगी से जी अभी तक भरा नही मायने ये है के मैं अब तक मरा नही जिस शाख से पतझड़ में पत्ते न झड़े वो शाख बसंत में था हरा नही दुनिया दुश्वार कर देगी जीना अगर कहते रहे तुम जरा हाँ, जरा नही. ईमानवालों की बातें ना सुनो कहते हैं, ईमानदारी में कुछ धरा नही खुद को जिन्दा समझ तभी तक 'केशव' जबतक कि दिल किसी से डरा नही

एक शेर अपना एक पराया- 4

दोस्तों, फिर से आपकी सेवा में हाजिर है इस श्रंखला की चौथी कड़ी. उम्मीद है की ये पेशकश आपको पसंद आ रही है. आप की समालोचनाओं का इंतजार रहेगा. ज़ख्म खिले तो बात बने फूलों का खिल जाना क्या   ग़म की दौलत है तो है दुनिया को दिखलाना क्या *****ज़फर रज़ा**** अश्क़ जो उमड़े आँखों में रुकना क्या बह जाना क्या ###केशवेन्द्र#### ********** खिलखिलाता है जो आज के दौर में इक अजूबे से क्या कम वो इंसान है मीर, तुलसी, ज़फ़र, जोश, मीरा, कबीर दिल ही ग़ालिब है और दिल ही रसखान है   ढूंढ़ता फिर रहा फूल पर तितलियां शहर में वो नया है या नादान है ****NEERAJ GOSWAMI***** हम को ग़म भी मिले तो नही ग़म कोई तुमको खुशियाँ मिले ये ही अरमान है. -------Keshvendra------ ********* कुछ लोग इस शहर में हमसे भी हैं खफा हर एक से अपनी भी तबियत नही मिलती. -------निदा फाजली------- आईने सच दिखाते हैं या झूठ, नहीं मालूम मगर जो आईने में है उससे अपनी सूरत नहीं मिलती. ---केशवेन्द्र---- *********** कभी पाबन्दियों से छुट के भी दम घुटने लगता है दरो-दीवार हो जि

इक सोते हुए शहर में जागता हुआ मैं

इक सोते हुए शहर में जागता हुआ मैं! खुद के पीछे तो कभी खुद से भागता हुआ मैं!! हर इक जगह तलाशा पर मालूम ना चला! की किस जगह पे आकर के लापता हुआ मैं!! चाहा बहुत है पर अब तक चाहत फ़क़त चाहत ही है! कि देखूं किसी को खुद को चाहता हुआ मैं!! इन आँधियों को मेरे घोंसले से न जाने कितना प्यार है! इन आँधियों पे हूँ हंस रहा तिनके बटोरता हुआ मैं!! लोग सारे सो चुके, रोशनियाँ अधजागी हैं और! विरहा की आग में जल रहा तेरी बाट अगोरता हुआ मैं!!

स्वर्णमृग

पूरा जग ही माया है कोई पार ना पाया है रूप के पीछे हम भी, तुम भी इसने जग भरमाया है जूते घिसे, घिस गए तलवे कुछ भी हाथ ना आया है जिसके पीछे अबतक थे हम देखा केवल साया है अन्दर क्या है देखा किसने दिखती केवल काया है जब भी हमने देखा उसको देखा वो शरमाया है देखा आज जिसे फूल सा खिला देखा कल कुम्हलाया है उसको जब भी हँसते देखा खुद को बेखुद पाया है हरदम मेरे साथ चला कोई देखा उसका साया है खुद को जब भी तन्हा पाया उसको पास ही पाया है चाहे जितनी कड़ी धूप हो सर पे उसका साया है चाहूँ भी तो छूट ना सकता ऐसा फांस फंसाया है आई मन में उसकी ही छवि जब भी कोई याद आया है खोया है हम ने सब कुछ तब जाकर खुद को पाया है उसकी आँखों में जो झाँका अपना अक्स ही पाया है दोराहे पर ठिठका खड़ा हूँ वक़्त कहाँ हमें लाया है याद साथ तेरी, कलम हाथ मेरे जीवन पन्नों पर छितराया है रहो जहाँ भी, रहो खुश सदा दिल ने ये फ़रमाया है अब मैं हूँ और कलम संग है शब्द मेरा सरमाया है. (24 अप्रैल 2003 )

Ek Sher Apna, Ek Paraya-3

एक अरसे के बाद फिर से मन किया है की उस्तादों के रदीफ़-काफिये की कसौटी पर फिर से जोर-आजमाइश की जाई. तो लीजिए, मीर साहेब का एक शेर और उसी की तुक-ताल में मेरा प्रयास प्रस्तुत है.( 28 Jan 2010) ******** इश्क हमारा आह ना पूछो क्या-क्या रंग बदलता है! खून हुआ दिल दाग हुआ फिर दर्द हुआ फिर गम है अब!! ---मीर--- दुनिया की इस अंधी दौड़ में सब कुछ तो हासिल है हमें! फिर भी बैठ के सोचा करते,क्या ज्यादा,क्या कम है अब!! ---keshvendra---     ********   तुम नही पास, कोई पास नहीं! अब मुझे जिन्दगी की आस नहीं!! साँस लेने में दर्द होता है! अब हवा जिन्दगी की रास नहीं!! -------जिगर बरेलवी---- इस निगोड़ी जाम से जो बुझ जाये! ऐसी ओछी हमारी प्यास नही!! मेरी खुद्दारी को ललकारो नही! ये किसी के पैरों तले की घास नहीं!! ------केशवेन्द्र------   *********   दिल धड़कने से खफा है और आँखें नम नहीं! पीछे मुडके देखने की यह सजा कुछ कम नहीं!! -----शहरयार------ तेरे हुश्न की खुशबू से जुट जायेंगे भँवरे कई नए! देखना उस भीड़ में सब होंगे, होंगे हम नहीं !! ---केशवेन

एक शेर अपना एक पराया-२

साथियों, लो फिर से मैं आप लोगों की सेवा में हाजिर हूँ एक शेर अपना, एक पराया की दूसरी कड़ी लेकर. प्रयास कैसा लगा बताना मत भूलियेगा. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा.   ********* जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा कुरेदते हो जो राख जुस्तजू निहाँ क्या है .....ग़ालिब........ खरोंचे जो दिल पे लगते है कभी नही भरते जो खोजते हो जिस्म पे निशाँ तो वहाँ क्या है ....केशवेन्द्र....... ******* घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर ले किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये =====निदा फाजली===== कांटे में फंस के तड़पती हुई मछली बोली ऐ खुदा! इस तरह ना किसी को फंसाया जाये. ------keshav------     ******** पूछते हैं वो कि ग़ालिब कौन है कोई बतलाये कि हम बतलाये क्या...... ग़ालिब जो उनने पूछा कि कितना प्यार करते हो तबसे हैं इस सोच में कि जतलाये क्या हम हनुमान नही इसका ही जरा गम है वरना कहते कि दिल चीर के दिखाए क्या.... केशवेन्द्र   *********     मुद्दतों से न हमें तेरी याद आई है और हम भूल गए है तुझे ऐसा भी नही....Firak इस इश्क की भूलभुलैयाँ में सब

तूने चोट दी है ऐसे, जैसे डंक हो बिच्छू के

खुशबू का एक झोंका, आया है तुझको छू के! आँखों से एक आंसू, छलका, गिरा है चू के !! झगडे के बाद बीबी-मियां, बैठे हैं गुमसुम से ! याद आ रहे दिन प्रेम भरे, उनको हैं शुरू के!! कैसा सुकून मिलता है, कहने में नही आता! बुजुर्गों की दुआ लेते हुए, उनके पाँव छू के!! छूटी है पाठशाला, मगर अब भी ये लगता है! सर पर बने हुए है हाथ, अब भी मेरे गुरू के !! सीने में कितना दर्द है, ये मुझको ही है मालूम! तूने चोट दी है ऐसे, जैसे डंक हो बिच्छू के!! कुछ रिश्ते नही बदलते, बदलने के ज़माने से ! पर मोटर बोटों के आते ही, दिन लदते हैं चप्पू के!! पप्पू को दुनिया वालों ने घोंचू भले हो माना! आई है खबर इस बार, टॉप होने के पप्पू के!!

तेरी.. नहीं है, तेरी कमी

रिश्तों में है बर्फ जमी! तेरी.. नहीं है, तेरी कमी!! दुनिया तो निकली अक्लमंद! बुद्धू ठहरे एक हमी!! धरती सूखी जाती है! आँखों में छुप गयी सारी नमी!! खंडहरों में जीते हैं! इक दिन बन जायेंगे ममी!! दिल ना डोले इन्सां का ! तब डोला करती है ये जमी!! बाजारू इस दुनिया में! हैं रिश्ते सारे बने डमी!! जाने क्या है होने वाला! साँसें है सहमी-सहमी!! बिकने कुछ दिल आये हैं! बाजार में है गहमा-गहमी!! रात में देखा सपना बुरा! चीख पड़ा-"मम्मी-मम्मी"!!

छाई इक धुंध- सी उदासी है

सब तो है पर कमी जरा-सी है! जिन्दगी लगता है कि बासी है!! तेरी यादों के सर्द मौसम पर! छाई इक धुंध- सी उदासी है!! जिस्म की बात छोडो जाने दो! रूह तक मेरी कब से प्यासी है!! कान कब से मेरे तरस से गए! तुम से मिलती नही शाबासी है!! साथ तुम थी तो लगता था,ये दुनिया! जन्नत तो नहीं है पर वहां-सी है!! तू खफा मुझसे, कोई बात नही! शुक्र है, यादें तेरी, मेहरबां-सी है!! हाल अब तो है ये अपना कि! जुबां होते हुए हालत बेजुबां-सी है!!

एक शेर अपना एक पराया-1

साथियों, बहुत दिनों से मेरे मन में यह ख्याल था कि ग़ज़ल के दुनिया के नामचीन शायरों के पसंदीदा शेरों कि तर्ज़ पर शेर लिखूं...और उसी को मूर्त रूप दिया मैंने ऑरकुट कि कम्युनिटी महकार-ऐ शफक के माध्यम से. तो लीजिए उनमे से कुछ चुने हुए अपने-पराये शेर आपकी नज़र है- ****** धूप में निकलो, घटाओं में नहाकर देखो जिन्दगी क्या है, किताबों को हटाकर देखो. ----निदा फाजली----- मन के अरमानों को बाहर भी कभी आने दो दिल के सैलाब में दुनिया को बहाकर देखो. - ------मेरा लिखा शेर---- ****** तुमको देखा तो ये ख्याल आया जिन्दगी धूप तुम घना साया - जावेद अख्तर दिल की हसरत कि दिल में घुट के रही तुम न रूठी, ना मैं मना पाया. ---केशवेन्द्र----- ******* मुझे खबर थी की वो मेरा नही पराया था प' धडकनों ने उसी को खुदा बनाया था. --शायर का तो पता नहीं पर गाया है लता जी ने-- जिसे ना देखने को बंद की थी ये आँखें बंद आँखों में वही ख्वाब बनके आया था. -केशवेन्द्र- ****** गम रहा जब तक की दम में दम रहा दिल के जाने का निहायत गम रहा. --------मीर-------- क्या कसक थी पता चल पाया नही आँखें छलकी र

उदासी के रंगों की खोज

विश्व की एक और बड़ी खोज यात्रा पर निकला हूँ मैं और यह खोज यात्रा एक छोटी-सी दिखने वाली चीज की है दुनिया में लोगों ने खोजे हैं हर भावना के रंग प्रेम के, शांति के, क्रांति के...भावनाओं की हर भ्रान्ति के उदासी के सच्चे रंग किसी को भी मालूम नही. इस खोज यात्रा में एक-एक कर मुझे करना था उन सारे रंगों का विश्लेषण जिन्हें जोड़ा जाता है उदासी या उदास होने से. सबसे पहले मैं पहुंचा श्वेत रंग के पास देखा तो वह मुझे अपनी धवलता में खिलखिलाता मिला श्वेत को उदासी से कैसे कोई जोड़ सकता है भला. खोज यात्रा आगे बढ़ी पहुची धूसर मटमैले रंगों के पास उनके पास से आई मिट्टी की सोंधी खुशबू और कुछ नए कोपलों के तुतले चहकते बोल धूसर मटमैला तो बड़ा ही खुशमिजाज रंग निकला. यात्रा आगे बढती रही. और इस बार मैं नीले रंगों के तट पर उतरा बड़ा गुमान था कि नीले रंगों की विशाल दुनिया में कोई तो उदासी का रंग मिलेगा, मगर समंदर की खिलखिलाती नीली लहरें मुझे फेन से भरी जीभ दिखा कर भाग गयी. मैं उसकी इस शरारत पर मुस्कराकर वहां से बढ़ चला. यात्रा को बढ़ते चलना था, बढ़ते रहे हम औ

Meri Triveniyan-2

Triveni- 2nd season **प्यार कभी मुहताज नही मैं शाहजहाँ नहीं और तू मुमताज नही अपने प्रेम की निशानी कोई ताज नही दिल कहता है-प्यार कभी मुहताज नही. 15 Febuary 2010  ** तेरा जूड़ा किनारे की दो पतली चोटियाँ जैसे हो यमुना और सरस्वती और बीच की चौड़ी चोटी जैसे हो चौड़ा पाट गंगा का.   मेरे लिए तो तेरा जूड़ा किसी त्रिवेणी से कम नही.   19 Febuary 2010       ** दिल तो पत्थर नही था दिल तो पत्थर नही था फिर भी तराशा था इसे दिल हीरे-सा हो उठेगा ये आशा थी मुझे, मगर दिल ने कई दिनों से धड़कना छोड़ दिया है.   20 Febuary 2010       ** मुखौटा . एक मुखौटा लगा के यहाँ आये हो तुम खुबसूरत है दिल तुम्हार मगर परदे में है. और मैं हूँ की कोई राज सह सकता नही.   20 Febuary 2010       ** शायर सभी निराले होते हैं इस दुनिया के शायर सभी निराले होते हैं दुनिया में हँसते रहते हैं घर में रोते हैं. बीबी झाड़ू लिए मरम्मत उनकी करती है. 20 Febuary 2010 ** 99 के फेर में सैकड़ों का इंतजार तो सबको होता है 99 के फेर में चाहे सचिन पड़े या कोई और,रोता है.

मेरी त्रिवेनियाँ-1

साथियों, ऑरकुट की कम्युनिटी महकार-ऐ-शफक पर लिखी अपनी जनवरी तक की त्रिवेणियों को आपके सामने रख रहा हूँ. प्रयास कैसे हैं ये तो आप लोग ही बताएँगे. * This is my first trial to write a Triveni, नेता-अफसर मिलकर के खाते जाते देश और इधर टीवी पर बिग बी देते हैं सन्देश हाजमोला-हजम सब चाहे जब(बिना डकार लिए) 29.12.2009       *दिल की राख जब से फिजाओं में बिखरी है इन फिजाओं में फैली भीनी-भीनी खुशबू है. दिल भले राख हो गया हो मगर दिल है ना. 30.12.2009       *नव वर्ष शिशु आया है नयी आशाओं के साथ नव वर्ष शिशु आया है मुस्कान की भाषा के साथ तुम्हारे हाथों में बन्दूक देख डर ना जाये वो कहीं. 01.01.2010       * अनमना-सा मन है, पीड़ा है अनकही तुमको क्या, करते रहो तुम अपनी बतकही वैसे भी तुम तो खुशियों के ही साथी हो. 03.01.2010     * Aaj raat meri 'Wo' jo mujhse kah rhi thi, usi ko dhala hai maine is Triveni me- और कुछ हो न पता पर पता है मुझको ये बात आजकल नींद नही आती होगी तुमको सारी रात की सारी नींद तेरी मेरे हिस्से में जो चली आई है. 05.01.2

धडकनों का इंस्पेक्शन

तेरी यादें जब भी दिल के गलियारे से गुजरती हैं धडकनें थोड़ी टेंशन में, खड़ी attention में उसको देख कर बजाती है एक कड़क-सा सैल्यूट. तुम्हारी यादें धडकनों का इंस्पेक्शन करती हैं चेक करती हैं कि धडकनों कि वफादारी किसी और के लिए तो नही.. धड़कने किसी और के लिए तो नही धड़कती हैं.. और फिर एक गर्व भरी टेढ़ी-सी मुस्कान लिए अपने चेहरे पर दिल के गलियारों से आगे बढ़ लेती है. धडकनों को तो ये भी पूछने का हक नही कि तेरी यादें किसी और की धडकनों की सलामी तो नही लेती....?

प्रेम दिवस के अवसर पर एक ग़ज़ल

साथियों, प्रेम दिवस  के  अवसर पर थोड़ी देर से  ही  सही पर अपनी ताजी-ताजी ग़ज़ल लेकर आपकी सेवा में हाजिर हो रहा हूँ. आप सब को मेरी शुभकामना की आप सब के जीवन में सच्चा प्रेम आये और आप उसे पहचान कर उसे अपनी जिन्दगी बना सके और फिर औरों की जिंदगियों में भी प्रेम भरी खुशियाँ फैला सके. प्यार कभी मुहताज नही मैं शाहजहाँ नहीं और तू मुमताज नही! अपने प्रेम की निशानी कोई ताज नही!! दिल ने तब भी छेड़े गीत तुम्हारी यादों के! जब हाथों में मेरे कोई साज नही!! बिछड़े हमको कितने ज़माने-से बीत गए! विरहा की बातें करती रहना, आज नही!! वो भी वक़्त था लोग कहते थे जब हमसे! इश्क को छोडके तुमको कोई काज नही!! राधा के हर आंसू का है दर्द पता! पर दिल कहता, कान्हा धोखेबाज नही!! अरमां करता मैं भी ताज बनाऊ इक! दिल कहता है प्यार कभी मुहताज नही!! ----------*******------------

मुंबई और मेलबोर्न

साथियों, एक कच्ची-सी कविता आपके सामने रख रहा हूँ, जान-बूझकर इसे पकाया नही क्यूंकि यह कविता महत्वपूर्ण नही, विषय महत्वपूर्ण है. प्रवासियों के मुद्दे पर इस दोहरे मापदंड पर आप लोगों के विचारों का इंतजार रहेगा. अपने ही देश में पराये बनते लोगों की पीड़ा को देश की जनता की सकारात्मक और मानवीय सोच ही मिटा सकती है. हे मुंबई के महामहिम नेता! काश की तुम या तुम्हरा कोई सगा आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हो रही नस्लीय हिंसा का शिकार होता; तब शायद तुम समझ पाते यूपी, बिहार और भारत के कोने-कोने से पढाई, रोजगार या किसी और मरीचिका के पीछे मुंबई में आकर झोपड़पट्टियों या माचिस के डिब्बों जैसी काल-कोठरियों में जैसा-तैसा जीवन गुजारते लोगों की भय, विवशता और बेबसी को. शायद फिर तुम कभी नही बांटते मुंबई को मेरी-तेरी के सींखचों में. कहते यही तुम कि मुंबई तो हमारी है. कहते तुम कि मुंबई तो हर उस की है जो दिल-और-जान से इसका है. काश कि तुम एक बार नेता की जगह, इंसान बन कर सोचते!

प्रेम अकेला कर देता है: इश्क का फ़लसफा

प्रेम अकेला कर देता है: इश्क का फ़लसफा

प्रेम अकेला कर देता है: ईमान मर नहीं सकता

प्रेम अकेला कर देता है: ईमान मर नहीं सकता

ये समय अब ना रहा मीर-ओ-ग़ालिब का

सीने में कितना दर्द है, कैसी ये आह है कितनी नाउम्मीदी, कितनी बेबस चाह है? तेरे साथ चल रहा प' तेरी आरजू नही कि जिसकी आरजू वो किसी और राह है मेरी छोटी खताओं को भी मिली है बड़ी सजा तेरे खून सौ भी माफ़ है, तू कहाँ का शाह है? ये समय अब ना रहा मीर-ओ-ग़ालिब का बाजारू शेरों  पे यहाँ अब मिलती वाह है. 'हे राम' कहा सच का जब छलनी हुआ सीना उसकी पुकार से भी करुण ये किसकी कराह है?

ऐसी ही कोई आस हूँ.

ना खुश हूँ, ना उदास हूँ! ना दूर हूँ, ना पास हूँ!!   मिट पाए ना मिटाने से! ऐसी अबूझ प्यास हूँ!!     हर पाँव जिसको रौंदता!   बेबस-सी  मैं वो घास हूँ!!     सारी उदासी धुल उठे! ऐसा मुकम्मल हास हूँ!!     बुझ-बुझ के भभक जो उठे! ऐसी ही कोई आस हूँ!!

तेरी रूह के निशान निकलते हैं

झगड़ों में जब भी आगे आन-और-बान निकलते हैं! जंगल के घर-घर से तब तीर-कमान निकलते हैं!! खूबसूरत मुखौटे के पीछे! बदसूरत इंसान निकलते हैं!! तन का मुखौटा हटा के देखो! क्या भगवान निकलते है? दुनिया की आग में जलनेवाले! कुंदन के समान निकलते है!! बाबाओं के पास जाकर लोग ! और भी परेशान निकलते हैं!! जंगल में बस्ती मिलती है! शहर वीरान निकलते हैं!! मेरे  जिस्म के कतरे-कतरे से! तेरी रूह के निशान निकलते हैं!! तुम जब भी गुमी हो, तलाश में तेरी! मेरे जिस्म-और-जान निकलते हैं!!

प्रेम अकेला कर देता है: प्रेम अकेला कर देता है

प्रेम अकेला कर देता है: प्रेम अकेला कर देता है

मेरी परिन्दगी ख्वाब देखती है

मेरी परिन्दगी ख्वाब देखती है नीले आसमानों के! वहीँ तेरी दरिंदगी ख्वाब देखती है खूं में नहाने के!! क़त्ल करना है तो कर छोड़ना तो छोड़ कर तू जा! धमकियों के नही हैं, ना रहे दिन आजमाने के!! ये डींगे लम्बी-लम्बी हांककर बहलाओ ना हमको! नही अपने हुए तुम क्या हुए फिर तुम ज़माने के!! की दौलत हाथ तो आई मगर रिश्ते भुला बैठे! चलो फिर से चले हम खोज में खोये खजाने के!! नयी बीबी के पास आया है सरहद से कोई फौजी! बहाने ढूंढ़ता रहा छुट्टी भर वापस ना जाने के!! मजा तो इश्क में आता है बदले अंदाज़-ऐ-मोहब्बत से! चलो ढूंढे बहाने फिर नए इक-दूजे को सताने के!! भला करने गए लोगों की अब है खैरियत मुश्किल! नही ये वक़्त अब है ना रहे राहों से पत्थर हटाने के!! जो उम्र होती है खेलने-कूदने-हंसने-गाने की! उस उम्र में भूख सिखा देती है गुर कमाने के!!

प्रेम अकेला कर देता है: बलात्कार के विरुद्ध

प्रेम अकेला कर देता है: बलात्कार के विरुद्ध

प्रेम अकेला कर देता है: निराला की याद में

प्रेम अकेला कर देता है: निराला की याद में

निराला की याद में

बसंत पंचमी माँ शारदे की पूजा का पवन त्यौहार होने के साथ हिंदी के महानतम  कवियों में एक महाप्राण महाकवि निराला का जन्मदिन भी है. महाप्राण निराला को याद करते हुए आज के दिन मैंने जो कविता लिखी है उसे आप सबों की सेवा में पेश कर रहा हूँ. बसंत पंचमी और सरस्वती पूजा की शुभ्र शुभकामनाएँ. महाप्राण कितना सोच समझ कर चुना था अपने लिए निराला उपमान कविता ही नही जिन्दगी भी निराली जियी अपरा, अनामिका से कुकुरमुत्ते और नए पत्ते तक की काव्य यात्रा में ना जाने कितने साहित्य-शिखरों को लांघ हे आधुनिक युग के तुलसीदास जीवन भर करते रहे तुम राम की तरह शक्ति की आराधना अत्याचारों के रावण के नाश के लिए राम को तो शक्ति का वरदान मिला तुम कहो महाकवि तुमको क्या मिला? जीवन के अंतिम विक्षिप्त पलों में करते रह गए गिला की मैं ही वसंत का अग्रदूत जीवन की त्रासदियों से जूझते कहते रहे तुम- "स्नेह निर्झर बह गया है रेत ज्यों तन रह गया है." हे महाकवि, हर युग ने अपने सबसे प्रबुद्ध लोगों को सबसे ज्यादा प्रताड़ित किया है सबसे ज्यादा दुःख दिए हैं उन्हें तुम्ह

फिर भी लोग ख्वाब-ख्वाब करते हैं.

दोस्तों, ब्लोगों की  दुनिया से दूर ऑरकुट में भी कुछ communities  में  काफी रचनात्मक संभावनाएं दिखती है. ऑरकुट में ऐसी है एक प्यारी कम्युनिटी है महकार-ऐ-शफक . इस कम्युनिटी ने इधर पिछले एक महीने में मुझे लिखने के लिए काफी प्रेरणा दी है और मैं शुक्रगुजार हूँ इस समुदाय का. तो लीजिए  पेश है ख्वाबों पर चली इस समुदाय की बतकही की प्रेरणा से लिखी मेरी ताजा-तरीन ग़ज़ल-                     "फिर भी लोग ख्वाब-ख्वाब करते हैं. " इंसान ख़ुदकुशी कहाँ करते हैं वो तो ख्वाबों की मौत मरते हैं. इस पेड़ के नीचे ना खड़े हो दोस्त मेरे इससे पीले उदास पत्ते झड़ते हैं. अपने गम में होते हैं बहोत तन्हा हर गम औरों का जो हरते हैं ख्वाबों की लाशों से अटी-पटी ये दुनिया फिर भी लोग ख्वाब-ख्वाब करते हैं. अपनी ऊँगली की पोरों से यूँ छुओ ना हमको ऐसे छूने से हम सिहरते हैं. ख्वाबों की मौत का पता नही चलता ख्वाब इतनी ख़ामोशी से मरते हैं.

प्रेम अकेला कर देता है: पानी-पानी रे...

प्रेम अकेला कर देता है: पानी-पानी रे...

पानी-पानी रे...

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                                                                          'पानी-पानी रे...'-पानी बाबा राजेंद्र सिंह त्रिशूर, केरल में                                                          (07Dicember2009) दिसम्बर  के महीने में केरल के त्रिशूर जिले में UNICEF  और जिला प्रशासन  की साझेदारी में सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य के एक पहलू जल और स्वच्छता को लेकर परिचर्चा का आयोजन किया गया था जिसमे मुख्य अतिथि के रूप में पधारे थे हमारे अपने पानी बाबा- मैग्सेसे  अवार्ड से सम्मानित राजेंद्र सिंह जी. भव्य प्रशांत मुखमंडल वाले इस महान कर्म योगी की गहरी पनियाई आँखें बता रही थी इस शख्श के समंदर जैसे व्यक्तित्व की गहराई को.  सभा में और भी बहुत सारे विद्वतापूर्ण भाषण हुए पर मेरा मानों सारा ध्यान पानी बाबा पर ही केन्द्रित था और मैं उनके भाषण को सुनने की उत्सुक प्रतीक्षा कर रहा था. और जब वो घड़ी आई तो हिंदी में अपनी बात को रखते राजेंद्र जी को सुनना एक अनूठा अनुभव बन कर रह गया.  एक अहिन्दीभाषी राज्य में बड़े आत्मविश्वास के साथ हिंदी में बोलते हुए जब राजेन्द्रजी ने कहा की मुझे मलयालम बहुत प्य

बादलों के घेरे में

बादलों के घेरे में चेहरा तेरा दिखता है क्या बताऊँ और किसे गम भी जहाँ में बिकता है ख़ुशी-आशा आए-गए देखे मन में क्या अब टिकता है दूर तक पसरा अँधेरा मुझको तो अब दिखता है खुश रहो कहता सभी से दुनिया से ये ही रिश्ता है बिछुड़ना तेरा याद आये तो जख्म दिल का रिसता  है विरह की चक्की में देखो ह्रदय मेरा पिसता है प्रेम करके प्रेम ही पाए इंसां नही वो फ़रिश्ता है हमने तो देखा यारों प्रेम का गम से रिश्ता है. (कृष्ण सोबती की कहानी "बादलों के घेरे" को समर्पित)

मेरा कोई कारवां नही

मुझे जिन्दगी का मर्ज है जिसकी कोई दवा नही मैं जहां में तन्हा-तन्हा हूँ यहाँ कोई मेरा हमनवां नही मेरा दिल अभी भी है सीने में ये कोई दिल-ए-नातवां नही मैं अडिग हूँ अपनी जमीन पर मुझे हिला सके वो हवा नही लाखों हैं मेरे हमसफ़र पर मेरा कोई कारवां नही

बस दिल में तेरी वफ़ा रहे

जब तलक जिन्दा रहे हम जिन्दगी से खफा रहे मौत आये करीब तो बस दिल में तेरी वफ़ा रहे जिन्दगी कभी ठहरे नही ये ही मेरा फ़लसफ़ा रहे पलड़े बराबर रहे दोनों नाही नुकसां नाही नफा रहे दामन भले मेरा काला हो औरों के दामन सफा रहे मैं छोडूँ जब इस दुनिया को मुझपर ना कोई दफा रहे.

ग़जल-जिन्दगी से क्या गिला

अनमना-सा मन है, पीड़ा है अनकही तुमको क्या,करते रहो तुम अपनी बतकही भुला दिया था जिसको हमने बरसों पहले आज क्यूँ उसकी याद आँखों से आंसू बनके बही फिर से याद आई है अपनी इज़हार-ए-मोहब्बत और उसके होठों से निकली रुंधी-सी 'नहीं' उसको अपनी जिन्दगी से तो निकाल दिया मगर उसकी यादें दिल में घर करके रही जिन्दगी में जो मिला हंसकर के लिया ख़ुशी मिली  तो भी अच्छा,गम मिला तो भी सही.

मन की पीड़ा अनकही

मन को कितनी.... पीड़ा होती है जब तेरी आँखों में दिख जाता कोई मोती है. दूर मुझसे जो रहो खुश.. तो कोई बात नही तन्हा होते हुए भी गम का अहसास नही मांगती फिरती हो खुशियों की दुआ सबके लिए काश! लोगों के दिलों में आईने होते जब से तेरी आँख में आंसू देखा तब से मन मेरा बड़ा सूना है बाँट सकता नही तेरा गम में इसका दुःख मुझको और दूना है ख्वाहिशे मन की मेरी मन में रही बच गई एक तमन्ना..जो जीवन में रही कोई दिन आएगा ऐसा की मेरी याद आएगी अपने गम बांटने को, मुझको तू बुलाएगी. क्या पता, वो दिन कब आएगा? क्या पता, वो घडी आ पायेगी? क्या पता..कल को क्या-क्या होगा? क्या पता..उसको क्या पता होगा? कल की ना जानूँ , मैं इतना जानूँ  मौला जो भी करे अच्छा होगा. बात सुन मेरी मेरे हमनवा, ओ यार मेरे! भूल से भूलना भी मुमकिन ना, पहले प्यार मेरे ये जो मौसम है उदासी का, चला जायेगा कोई प्यारी-सी धुन.. भंवरा गुनगुनाएगा तब मुझे याद करो, ना करो, कोई बात नही अपने गम में मुझे बेगाना ना समझा करना मुझपे ज्यादा ना सही, इतना भरोसा करना एक आवाज जरा देके देख तो लेना मैं वहां हूँ तुम्हारे साथ में या की नह